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सदियों तुम्हारी याद में शमएँ जलाएँगे | शाही शायरी
sadiyon tumhaari yaad mein shaMein jalaenge

ग़ज़ल

सदियों तुम्हारी याद में शमएँ जलाएँगे

शफ़क़त तनवीर मिर्ज़ा

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सदियों तुम्हारी याद में शमएँ जलाएँगे
पल भर के बा'द फिर भी तुम्हें भूल जाएँगे

ता'मीर मुद्दआ' तलब-ए-ज़ौक़ हो गई
बुनियाद-ए-दर्द होगी तो दीवार उठाएँगे

अब काहिश-ए-जुनूँ का कोई सिलसिला नहीं
हाँ बे-दिली से दस्त-ए-दुआ भी उठाएँगे

ऐ कारवान-ए-तेज़-क़दम माँदगाँ को देख
आँखों में क्या ग़ुबार-ए-सर-ए-रह सजाएँगे

लिक्खेंगे क़हक़हों से बस इक दास्तान-ए-दिल
उस पर हदीस-ए-दर्द का उनवाँ जमाएँगे

यूँही सही जो गर्मी-ए-बाज़ार हम से है
हम बेच कर ज़मीर-ए-नज़र मुस्कुराएँगे

या चाक-ए-दिल को चाक-ए-गरेबाँ बना सकें
या दुख़्तरान-ए-मिस्र से दामन बचाएँगे

क्या रख़्श-ए-उम्र हीला-ए-मर्ग-आश्ना नहीं
उट्ठेगी मौज-ए-रेग-ए-रवाँ डूब जाएँगे

हर्फ़-आशना न होगी कोई मौज-ए-दर्द-ए-दिल
सीने पे रख के हाथ मगर बैठ जाएँगे