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सदियों तवील रात के ज़ानू से सर उठा | शाही शायरी
sadiyon tawil raat ke zanu se sar uTha

ग़ज़ल

सदियों तवील रात के ज़ानू से सर उठा

क़ैसर-उल जाफ़री

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सदियों तवील रात के ज़ानू से सर उठा
सूरज उफ़ुक़ से झाँक रहा है नज़र उठा

इतनी बुरी नहीं है खंडर की ज़मीन भी
इस ढेर को समेट नए बाम-ओ-दर उठा

मुमकिन है कोई हाथ समुंदर लपेट दे
कश्ती में सौ शिगाफ़ हों लंगर मगर उठा

शाख़-ए-चमन में आग लगा कर गया था क्यूँ
अब ये अज़ाब-ए-दर-बदरी उम्र भर उठा

मंज़िल पे आ के देख रहा हूँ मैं आइना
कितना ग़ुबार था जो सर-ए-रहगुज़र उठा

सहरा में थोड़ी देर ठहरना ग़लत न था
ले गर्द-बाद बैठ गया अब तो सर उठा

दस्तक में कोई दर्द की ख़ुश्बू ज़रूर थी
दरवाज़ा खोलने के लिए घर का घर उठा

'क़ैसर' मता-ए-दिल का ख़रीदार कौन है
बाज़ार उजड़ गया है दुकान-ए-हुनर उठा