EN اردو
सदा-ए-मुज़्दा-ए-ला-तक़नतू के धारे पर | शाही शायरी
sada-e-muzhda-e-la-taqnatu ke dhaare par

ग़ज़ल

सदा-ए-मुज़्दा-ए-ला-तक़नतू के धारे पर

शहबाज़ ख़्वाजा

;

सदा-ए-मुज़्दा-ए-ला-तक़नतू के धारे पर
चराग़ जलते रहे आस के मीनारे पर

अजीब इस्म था लब पर कि पाँव उठते ही
मैं ख़ुद को देखता था अर्श के किनारे पर

अजीब उम्र थी सदियों से रहन रक्खी हुई
अजीब साँस थी चलती थी बस इशारे पर

वो एक आँख किसी ख़्वाब की तमन्ना में
वो एक ख़्वाब कि रक्खा हुआ शरारे पर

इसी ज़मीन की जानिब पलट के आना था
उतर भी जाते अगर हम किसी सितारे पर

मता-ए-हर्फ़ कहीं बे-असर नहीं 'शहबाज़'
ये काएनात भी है कुन के इस्तिआरे पर