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सद-हैफ़ कि कमज़ोर है चश्मान बुढ़ापा | शाही शायरी
sad-haif ki kamzor hai chashman buDhapa

ग़ज़ल

सद-हैफ़ कि कमज़ोर है चश्मान बुढ़ापा

उबैदुल्लाह ख़ाँ मुब्तला

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सद-हैफ़ कि कमज़ोर है चश्मान बुढ़ापा
सुस्ती सती जुम्बिश में है दंदान बुढ़ापा

अज़ बस-कि हुआ हैगा गुज़र फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ का
रौनक़ नहीं रखता है गुलिस्तान बुढ़ापा

अरबल के भँवर में गई है डूब जवानी
जिस वक़्त उठा जग मने तूफ़ान बुढ़ापा

तस्बीह-ओ-मुसल्ला-ओ-असा ऐनक-ओ-रा'शा
जोबन ने दिया भेज ये सामान बुढ़ापा

ग़फ़लत की रुई दूर न की शीशा-ए-दिल सूँ
मय-ख़ाने में मस्ताँ ने सुन इलहान बुढ़ापा

अशआ'र हैं तारीफ़ सपेदी की सरापा
इस वास्ते रंगीं नहीं दीवान बुढ़ापा

जोबन के भवन में लगी है आतिश-ए-गर्मी
छिड़के है तहूर आब ज़मिस्तान बुढ़ापा

गर्दूं की तरह ख़म हुआ क़द क़ौस-ए-क़ुज़ह का
खींचा है मगर ज़ोफ़ सूँ कैवान बुढ़ापा

अमराज़ की अफ़्वाज का यूरिश है बदन पर
इस मुल्क में मग़्लूब है सुल्तान बुढ़ापा

अब बुलबुल-ए-जाँ तंग हुआ तन के क़फ़स में
पर्वाज़ करे देख के ज़िंदान बुढ़ापा

लज़्ज़त नहीं देता है दहन बीच कसू के
ऐ 'मुबतला' क्या सर्द हैगा नान बुढ़ापा