सच है ग़म-ए-फ़िराक़ में हम रो नहीं सके 
वो भी तमाम रात मगर सो नहीं सके 
बे-फ़ाएदा है चाहना असनाम से वफ़ा 
ये संग-दिल किसी के कभी हो नहीं सके 
पत्थर के लोग हैं जहाँ शीशे के बाम-ओ-दर 
हम उस ज़मीं में दर्द-ए-वफ़ा बो नहीं सके 
सीने में एक दाग़ लगा और उम्र-भर 
धोते रहे वो दाग़ मगर धो नहीं सके 
आदाब-ए-पर्दा-दारी-ए-ज़ब्त-ए-फुग़ाँ न पूछ 
तूफ़ान दिल में उठते रहे रो नहीं सके 
रंगीनियों के अहद में ख़ुशियों के दौर में 
चाहा ग़मों को खोना मगर खो नहीं सके 
तसख़ीर-ए-माहताब मुकम्मल तो हो गई 
दामन में उस के एक भी पल सो नहीं सके 
अय्यारी-ए-सियासत-ए-अहबाब देखिए 
चाहा किसी के हो के रहें हो नहीं सके
        ग़ज़ल
सच है ग़म-ए-फ़िराक़ में हम रो नहीं सके
ख़लीलुर्रहमान राज़

