EN اردو
सच बोल के बचने की रिवायत नहीं कोई | शाही शायरी
sach bol ke bachne ki riwayat nahin koi

ग़ज़ल

सच बोल के बचने की रिवायत नहीं कोई

असअ'द बदायुनी

;

सच बोल के बचने की रिवायत नहीं कोई
और मुझ को शहादत की ज़रूरत नहीं कोई

मैं रिज़्क़ की आवाज़ पे लब्बैक कहूँगा
हाँ मुझ को ज़मीनों से मोहब्बत नहीं कोई

मेरे भी कई ख़्वाब थे मेरे भी कई अज़्म
हालात से इंकार की सूरत नहीं कोई

मैं जिस के लिए सारे ज़माने से ख़फ़ा था
अब यूँ है कि उस नाम से निस्बत नहीं कोई

लहजा है मिरा तल्ख़ मिरे वार हैं भरपूर
लेकिन मेरे सीने में कुदूरत नहीं कोई