सब्त है चेहरों पे चुप बन में अंधेरा हो चुका
देखने आए हो क्या लोगो तमाशा हो चुका
आबरू के सुर्ख़ मोती फिर से काले पड़ गए
जिस्म के अंदर लहू का रंग पीला हो चुका
हसरतों के पेड़ सब के सर से ऊँचे हो गए
आरज़ू का ज़ख़्म पहले से भी गहरा हो चुका
फिर मुझे नादीदनी ज़ंजीर पहनाई गई
इल्म तक मुझ को नहीं और मेरा सौदा हो चुका
बर-सर-ए-पैकार अपने-आप से हूँ क्या करूँ
मेरा दुश्मन भी मिरी मिट्टी से पैदा हो चुका
कैसे टूटे हैं दिलों के बाहमी रिश्ते न पूछ
है नगर आबाद और हर शख़्स तन्हा हो चुका
तुम कहे जाते हो ऐसी फ़स्ल-ए-गुल आई नहीं
और अगर मैं ये कहूँ सौ बार ऐसा हो चुका
कौन हूँ मैं अपनी सूरत भी न पहचानी गई
आईना तकते हुए मुझ को ज़माना हो चुका
देखना ये है कि उस के मावरा क्या चीज़ है
ये उमीद-ओ-बीम का दफ़्तर पुराना हो चुका
कब तलक दिल में जगह दोगे हवा के ख़ौफ़ को
बादबाँ खोलो कि मौसम का इशारा हो चुका
अब ज़बाँ से भी कहो 'शहज़ाद' क्यूँ ख़ामोश हो
दिल में जो कुछ था वो आँखों से हुवैदा हो चुका
ग़ज़ल
सब्त है चेहरों पे चुप बन में अंधेरा हो चुका
शहज़ाद अहमद