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सभी कहें मिरे ग़म-ख़्वार के अलावा भी | शाही शायरी
sabhi kahen mere gham-KHwar ke alawa bhi

ग़ज़ल

सभी कहें मिरे ग़म-ख़्वार के अलावा भी

अहमद फ़राज़

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सभी कहें मिरे ग़म-ख़्वार के अलावा भी
कोई तो बात करूँ यार के अलावा भी

बहुत से ऐसे सितमगर थे अब जो याद नहीं
किसी हबीब-ए-दिल-आज़ार के अलावा भी

ये क्या कि तुम भी सर-ए-राह हाल पूछते हो
कभी मिलो हमें बाज़ार के अलावा भी

उजाड़ घर में ये ख़ुशबू कहाँ से आई है
कोई तो है दर-ओ-दीवार के अलावा भी

सो देख कर तिरे रुख़्सार ओ लब यक़ीं आया
कि फूल खिलते हैं गुलज़ार के अलावा भी

कभी 'फ़राज़' से आ कर मिलो जो वक़्त मिले
ये शख़्स ख़ूब है अशआर के अलावा भी