सबा का राज़ भी फूलों के दरमियान खुला
उस एक दर के तवस्सुत से गुल्सितान खुला
क़फ़स में क़ैद परिंदों के पर नहीं खुलते
नज़र के सामने लेकिन है आसमान खुला
अभी तो लफ़्ज़ भी आवाज़ के भँवर में हैं
अभी से कैसे मआनी का बादबान खुला
फ़लक पे घोर घटाएँ सराब होने लगीं
सरों पे धूप का जिस वक़्त साएबान खुला
तमाम शहर की तन्हाइयाँ मुकम्मल हैं
कोई भी 'हाशमी' लगता नहीं मकान खुला

ग़ज़ल
सबा का राज़ भी फूलों के दरमियान खुला
मुसर्रत हाशमी