सबा देख इक दिन इधर आन कर के
ये दिल भी पड़ा है गुलिस्तान कर के
यही दिल जो इक बूँद है बहर-ए-ग़म की
डुबो देगा सब शहर तूफ़ान कर के
मियाँ दिल को इस आइना-रू के आगे
जो रखना तो यक-लख़्त हैरान कर के
ख़ुदा जाने क्या असलियत ग़ैर की है
दिखे है बनी-नौ-ए-इंसान कर के
उसे अब रक़ीबों में पाते हैं अक्सर
रखा जिस को ख़ुद से भी अंजान कर के
दिखा देंगे अच्छा इसी फ़स्ल-ए-गुल में
गरेबान को हम गरेबान कर के
हमारे तो इक घर भी है भाई मजनूँ
पड़े हैं उसी को बयाबान कर के
ग़ज़ल
सबा देख इक दिन इधर आन कर के
अहमद जावेद