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सब ने'मतें हैं शहर में इंसान ही नहीं | शाही शायरी
sab neamaten hain shahr mein insan hi nahin

ग़ज़ल

सब ने'मतें हैं शहर में इंसान ही नहीं

फ़रहत एहसास

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सब ने'मतें हैं शहर में इंसान ही नहीं
कुछ यूँ कि जैसे ये कोई नुक़सान ही नहीं

इक आयत-ए-वजूद हूँ मिट्टी के ढेर में
मेरे नुज़ूल की तो कोई शान ही नहीं

काबीना-ए-वुजूद का मैं भी हूँ इक वज़ीर
ऐसा कि मेरा कोई क़लम-दान ही नहीं

ये जंग अब कहाँ हो बदन में कि रूह में
गोया कि इश्क़ का कोई मैदान ही नहीं

दस्त-ए-जुनूँ भी तंग हुआ दश्त-ए-इश्क़ में
अब चाक क्या करूँ कि गरेबान ही नहीं

हैराँ हूँ अपने क़त्ल का इल्ज़ाम किस को दूँ
तौहीद में तो शिर्क का इम्कान ही नहीं

'एहसास' ने बुतों में ख़ुदा को किया शरीक
इस शिर्क के बग़ैर तो ईमान ही नहीं