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सब कुछ सर-ए-बाज़ार-ए-जहाँ छोड़ गया है | शाही शायरी
sab kuchh sar-e-bazar-e-jahan chhoD gaya hai

ग़ज़ल

सब कुछ सर-ए-बाज़ार-ए-जहाँ छोड़ गया है

नौशाद अली

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सब कुछ सर-ए-बाज़ार-ए-जहाँ छोड़ गया है
ये कौन खुली अपनी दुकाँ छोड़ गया है

जाते ही किसी के न वो नग़्मा न उजाला
ख़ामोश चराग़ों का धुआँ छोड़ गया है

वहशी तो गया ले के वो ज़ंजीर ओ गिरेबाँ
इक नौहा-कुनाँ ख़ाली मकाँ छोड़ गया है

सौ क़ाफ़िले इस राह से आए भी गए भी
अब तक मैं वहीं हूँ वो जहाँ छोड़ गया है

भेजा है ये किस ने वरक़-ए-सादा मिरे नाम
क्या क्या गिले बे-लफ़्ज़-ओ-बयाँ छोड़ गया है

ता-दूर जहाँ अब है सर-ए-राह चराग़ाँ
वो नक़्श-ए-क़दम अपने वहाँ छोड़ गया है

उठ कर तिरी महफ़िल से गया है जो मुग़न्नी
नग़्मात के पर्दे में फ़ुग़ाँ छोड़ गया है

बे-सम्त सा इक आज कि माज़ी है न फ़र्दा
ये वक़्त का सैलाब कहाँ छोड़ गया है

पहलू में कहाँ दिल जो सँभाले कोई 'नौशाद'
इक दाग़ की सूरत में निशाँ छोड़ गया है