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सब को मिट जाना है तक़्वीम-ए-फ़ना क्या देखूँ | शाही शायरी
sab ko miT jaana hai taqwim-e-fana kya dekhun

ग़ज़ल

सब को मिट जाना है तक़्वीम-ए-फ़ना क्या देखूँ

सय्यद नवाब हैदर नक़वी राही

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सब को मिट जाना है तक़्वीम-ए-फ़ना क्या देखूँ
ज़िंदगी क्यूँ न तिरा हुस्न-ए-दिल-आरा देखूँ

दिल-ए-पुर-ख़ूँ को तो मिल जाए फ़राग़-ए-इशरत
कब तलक दर्द से उस का मैं तड़पता देखूँ

मैं कि हूँ कुश्ता-ए-नौमीदी-ए-जावेद कभी
अपनी मौहूम उम्मीदों का बर-आना देखूँ

ज़िंदगी कोई मआ'नी कोई मतलब तो हो
ये न हो क़ाफ़िला-ए-जाँ का गुज़रना देखूँ

सुब्ह से शाम तलक धूप ही ओढ़ी मैं ने
कोई दम अब तो मैं बादल का बरसना देखूँ

यूँ तो ताबानी-ए-दुनिया पे नज़र रुकती नहीं
ये न हो चेहर-ए-इंसाँ को मैं उतरा देखूँ

ग़र्क़ हो जाऊँगा अपने में वो दरिया मैं हूँ
कब तलक राही समुंदर का इशारा देखूँ