सब चेहरों पर एक ही रंग और सब आँखों में एक ही ख़्वाब
फिर भी जाने बस्ती बस्ती मक़्तल क्यूँ है शहर-ए-गुलाब
वहशत-ए-बाम-ओ-दर कहती है और बलाएँ आएँगी
अब जो बलाएँ आईं तो लोगो रन होगा बे-हद्द-ओ-हिसाब
जब भी कभी शब-ख़ून पड़ा तो अहल-ए-चमन ख़ामोश रहे
मौसम-ए-गुल में जिस को देखो ''मेरी शाख़ें'' ''मेरे गुलाब''
हम से कोई पूछे तो बताएँ क्या कुछ हम पर बीत गई
कहाँ कहाँ गहनाए सूरज कहाँ कहाँ डूबे महताब
आओ शमएँ सब गुल कर दो कह दो जाने वाले जाएँ
अब हर दिन पैकार का दिन है अब हर दिन है रोज़-ए-हिसाब
प्यास की बातें कहते सुनते कितने मौसम आए गए
कोई सबील-ए-कोह-कनी भी कब तक ज़िक्र-ए-क़हत-ए-आब
हम बे-दर बे-घर लोगों की एक दुआ बस एक दुआ
मालिक शहर-ए-गुलाब सलामत हम पर जो भी आए अज़ाब
ग़ज़ल
सब चेहरों पर एक ही रंग और सब आँखों में एक ही ख़्वाब
इफ़्तिख़ार आरिफ़