सब चले जाओ मुझ में ताब नहीं
नाम को भी अब इज़्तिराब नहीं
ख़ून कर दूँ तिरे शबाब का मैं
मुझ सा क़ातिल तिरा शबाब नहीं
इक किताब-ए-वजूद है तो सही
शायद इस में दुआ का बाब नहीं
तू जो पढ़ता है बू-अली की किताब
क्या ये आलिम कोई किताब नहीं
अपनी मंज़िल नहीं कोई फ़रियाद
रख़्श भी अपना बद-रिकाब नहीं
हम किताबी सदा के हैं लेकिन
हस्ब-ए-मंशा कोई किताब नहीं
भूल जाना नहीं गुनाह उसे
याद करना उसे सवाब नहीं
पढ़ लिया उस की याद का नुस्ख़ा
उस में शोहरत का कोई बाब नहीं
ग़ज़ल
सब चले जाओ मुझ में ताब नहीं
जौन एलिया