साया कोई मैं अपने ही पैकर से निकालूँ
तन्हाई बता कैसे तुझे घर से निकालूँ
इक मौज भी मिल जाए अगर मुझ को सिले में
गिरते हुए दरिया को समुंदर से निकालूँ
तेशे से बजाता फिरूँ मैं बरबत-ए-कोहसार
नग़्मे जो मिरे दिल में हैं पत्थर से निकालूँ
लौ तेज़ नहीं कुछ मिरी आँखों ही की शायद
मतलब यही बे-नूरी-ए-मंज़र से निकालूँ
बदले न कोई रंग तिरा हुस्न-ए-ख़मोशी
मैं बात के पहलू तिरे तेवर से निकालूँ
तौबा ने जगाया मिरे अंदर का शराबी
अब फ़ाल भी टूटे हुए साग़र से निकालूँ
सोचों के बयाबाँ में लिए फिरता है मुझ को
क्या ज़ेहन भी सौदा है जिसे सर से निकालूँ
इक नस्ल-ए-सुख़न मुझ में है आबाद 'मुज़फ़्फ़र'
सूरत नई हर लफ़्ज़ के अंदर से निकालूँ
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ग़ज़ल
साया कोई मैं अपने ही पैकर से निकालूँ
मुज़फ़्फ़र वारसी