सातवें नंबर की सूरत वो भी पुर-असरार था
मैं सिफ़र की तरह सब कुछ था मगर बे-कार था
हर-नफ़स अब तक मिरे दिल की अजब हालत रही
मौत से डरता भी था जीने से भी बेज़ार था
इक शनासा ना-शनासाई थी मेरे हर तरफ़
मेरा घर मेरे लिए तो घर न था बाज़ार था
मेरी बर्बादी का ज़ामिन दूसरा कोई नहीं
मैं कि अपने वाहिमों का आप ज़िम्मेदार था
जिस्म ही क्या रूह तक ज़ख़्मों से छलनी हो गई
साँस का रिश्ता न था चलती हुई तलवार था
अब भला हासिल भी क्या होगा ब-जुज़ शर्मिंदगी
क्या कहूँ 'शादाब' किस से बरसर-ए-पैकार था
ग़ज़ल
सातवें नंबर की सूरत वो भी पुर-असरार था
अक़ील शादाब