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सातवें नंबर की सूरत वो भी पुर-असरार था | शाही शायरी
satwen number ki surat wo bhi pur-asrar tha

ग़ज़ल

सातवें नंबर की सूरत वो भी पुर-असरार था

अक़ील शादाब

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सातवें नंबर की सूरत वो भी पुर-असरार था
मैं सिफ़र की तरह सब कुछ था मगर बे-कार था

हर-नफ़स अब तक मिरे दिल की अजब हालत रही
मौत से डरता भी था जीने से भी बेज़ार था

इक शनासा ना-शनासाई थी मेरे हर तरफ़
मेरा घर मेरे लिए तो घर न था बाज़ार था

मेरी बर्बादी का ज़ामिन दूसरा कोई नहीं
मैं कि अपने वाहिमों का आप ज़िम्मेदार था

जिस्म ही क्या रूह तक ज़ख़्मों से छलनी हो गई
साँस का रिश्ता न था चलती हुई तलवार था

अब भला हासिल भी क्या होगा ब-जुज़ शर्मिंदगी
क्या कहूँ 'शादाब' किस से बरसर-ए-पैकार था