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साक़ी-ए-दौराँ कहाँ वो तेरे मय-ख़ाने गए | शाही शायरी
saqi-e-dauran kahan wo tere mai-KHane gae

ग़ज़ल

साक़ी-ए-दौराँ कहाँ वो तेरे मय-ख़ाने गए

शिव चरन दास गोयल ज़ब्त

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साक़ी-ए-दौराँ कहाँ वो तेरे मय-ख़ाने गए
वो इनायत वो सख़ावत जाम-ओ-पैमाने गए

ऐ मिरी हिम्मत ज़रा कुछ और मेरा साथ दे
आ गई नज़दीक मंज़िल दूर वीराने गए

चैन से सोया हुआ था इंतिज़ार-ए-हश्र में
आप मेरी क़ब्र पर क्यूँ फूल बरसाने गए

ऐ मुसीबत तेरा आना भी है गोया मो'जिज़ा
दोस्त और दुश्मन के सारे फ़र्क़ पहचाने गए

अब पशेमाँ हूँ कि क्यूँ उन को कहा वा'दा शिकन
इक ज़रा सी बात पर मुद्दत के याराने गए

बंदगी का मक़सद-ए-आ'ला तो पूरा कर दिया
सज्दा करने हम हरम को या कि बुत-ख़ाने गए

'ज़ब्त' अपनी दिल-लगी के वास्ते जलते हैं सब
शम्अ' जब बुझने लगी तो दूर परवाने गए