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साँस का अपनी रग-ए-जाँ से गुज़र होने तक | शाही शायरी
sans ka apni rag-e-jaan se guzar hone tak

ग़ज़ल

साँस का अपनी रग-ए-जाँ से गुज़र होने तक

सय्यद तम्जीद हैदर तम्जीद

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साँस का अपनी रग-ए-जाँ से गुज़र होने तक
दर्द होता है मुझे शब के सहर होने तक

उम्र गुज़री प असर आह का फिर भी न हुआ
जी गए हम भी किसी ज़ुल्फ़ के सर होने तक

जब वो समझेंगे तो ये दर्द में ढल जाएगी
आह बाक़ी है मिरी सिर्फ़ असर होने तक

था तग़ाफ़ुल उन्हें नौ-मीदी-ए-जावेद भी थी
ख़ाक-दर-ख़ाक थे हम उन को ख़बर होने तक

अपने ही ख़ूँ में नहाता है हर इक साँस के साथ
दिल मिरा दिल था किसी दर्द का घर होने तक

सामना परतव-ए-ख़ुर का करे शबनम कैसे
ज़ोर लगता है बहुत ख़ुश्क को तर होने तक

ख़ाक हैं ख़ाक में मिल जाने का डर क्यूँ हो हमें
ख़ौफ़ खाना है तो क़तरे को गुहर होने तक

दिल में अब रहम नहीं मेहर-ओ-मोहब्बत भी नहीं
वो भी इंसाँ था मगर साहब-ए-ज़र होने तक

हो गया इश्क़ जो मायूस-ए-तमन्ना इक बार
मौत आएगी उसे बार-ए-दिगर होने तक

उन के बा-ज़ाब्ता होने की है 'तमजीद' उमीद
हम भी हो जाते हैं ख़ामोश मगर होने तक