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सामने शाह-ए-वक़्त के 'असलम' कौन कहे ये बात | शाही शायरी
samne shah-e-waqt ke aslam kaun kahe ye baat

ग़ज़ल

सामने शाह-ए-वक़्त के 'असलम' कौन कहे ये बात

असलम हनीफ़

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सामने शाह-ए-वक़्त के 'असलम' कौन कहे ये बात
चोर न थे फ़नकार थे हम फिर काट लिए क्यूँ हात

उस का शेवा उस की फ़ितरत रिश्तों की तौहीन
नंग-ए-इंसानिय्यत हैं सब उस के एहसासात

कुंडली मारे बैठा हुआ था उस की ज़ात में खोट
आ कर वापस हो जाती थी रिश्तों की सौग़ात

मेरी ख़मोशी पर तारी है कैसा आलम-ए-कश्फ़
दश्त-ए-बदन पर होने लगी है रंगों की बरसात

जैसे ये भी पाट रही हों शख़्सिय्यत का झोल
रौज़ों की दीवारों पर यूँ कंदा हैं आयात

जाने किस आवाज़ की ख़ुशबू सूँघ रहे हैं कान
सारे बदन में डोल रहा है इक कैफ़-ए-लज़्ज़ात