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सामने होते थे पहले जिस क़दर होते थे हम | शाही शायरी
samne hote the pahle jis qadar hote the hum

ग़ज़ल

सामने होते थे पहले जिस क़दर होते थे हम

फ़ैज़ान हाशमी

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सामने होते थे पहले जिस क़दर होते थे हम
जब ये नज़्ज़ारे नहीं थे तब नज़र होते थे हम

तब नया मिट्टी से उट्ठा था मोहब्बत का ख़मीर
हर किसी कूज़े में दो इक घूँट भर होते थे हम

जिस परी पर मर मिटे थे वो परी-ज़ादी न थी
ब'अद में जाना कि उस के दोनों पर होते थे हम

तब किसी दीवार से कोई तआरुफ़ था नहीं
उन दिनों की बात है जब दर-ब-दर होते थे हम

सामने आते थे जब तो ढूँडते थे कश्तियाँ
चार आँखों से बनी इक झील पर होते थे हम

यूँ बना देते थे जैसे शेर हो जाते हैं अब
हर्फ़-ए-कुन का भी कभी दस्त-ए-हुनर होते थे हम

इक घड़ी ऐसी भी आती थी मुलाक़ातों के बीच
तुम उधर होते थे जिस के और उधर होते थे हम