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साकिन है कोई और वतन और किसी का | शाही शायरी
sakin hai koi aur watan aur kisi ka

ग़ज़ल

साकिन है कोई और वतन और किसी का

अब्दुल वहाब सुख़न

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साकिन है कोई और वतन और किसी का
ये रूह किसी की है बदन और किसी का

सुर्ख़ी है कहो की मिरे हर सर्व-ओ-समन में
पढ़ता है क़सीदा ये चमन और किसी का

तस्कीन का बाइ'स है किसी और का पहलू
एहसास दिलाती है चुभन और किसी का

आईना समझते हैं तुझे सब ये अलग बात
है तुझ में मगर आईना-पन और किसी का

ये प्यार का जज़्बा तिरे कुछ काम तो आए
मेरा नहीं बनता है तो बन और किसी का

कहते हैं सुख़नवर मुझे निस्बत से तिरी सब
रहता है मिरे लब पे 'सुख़न' और किसी का