साहिलों की ख़ामुशी ने जब फ़सुर्दा कर दिया
ख़्वाहिशों की कश्तियों को ग़र्क़-ए-दरिया कर दिया
जिस्म क्या था लज़्ज़तों का एक दरिया था कभी
हर किसी ने पी के उस को आज सहरा कर दिया
आज बैठे तक रहे हैं उम्र का ख़ाली गिलास
मौसमों का मय-कदा ये किस ने सूना कर दिया
मैं बरहना जिस्म उस का ओढ़ कर फिरता रहा
जामा-पोशी के जुनूँ ने मुझ को नंगा कर दिया
था यक़ीनन दोस्तों की सफ़ में इक दुश्मन मिरा
बे-ख़बर पा कर आचानक जिस ने हमला कर दिया
सोच कर सारी बसारत छीनने वाले बता
तू तो सूरज था मिरा क्यूँ मुझ को अंधा कर दिया
वो जो कल तक माँगते थे मुझ से क़द मेरा 'अदीब'
शे'र के नाक़िद ने उन को मुझ से ऊँचा कर दिया
ग़ज़ल
साहिलों की ख़ामुशी ने जब फ़सुर्दा कर दिया
कृष्ण अदीब