साहिल पे गवारा हमें मरना भी नहीं है
टूटी हुई कश्ती से उतरना भी नहीं है
बैठे हैं शब-ओ-रोज़ तसव्वुर में उसी के
वो राहगुज़र जिस से गुज़रना भी नहीं है
लिक्खेंगे ब-हर-हाल हिकायात-ए-जुनूँ हम
सच्चाई क़लम में है तो डरना भी नहीं है
अहबाब भी अब तेज़ किए बैठे हैं नाख़ुन
अब अपने किसी ज़ख़्म को भरना भी नहीं है
क़ातिल को बुला लाओ सितमगर को सदा दो
इंकार मुझे मौत से करना भी नहीं है
ये ख़ाक है आदम की दबा इस को लहद में
इस ख़ाक को राहों में बिखरना भी नहीं है
एहसान मसाफ़त में किसी का नहीं लेते
दीवार के साए में ठहरना भी नहीं है
ग़ज़ल
साहिल पे गवारा हमें मरना भी नहीं है
जलील साज़