साग़र-ए-सिफ़ालीं को जाम-ए-जम बनाया है
फैल कर मिरे दिल ने ''मैं'' को ''हम'' बनाया है
हम-सफ़र बनाया है हम-क़दम बनाया है
वक़्त ने मुझे कितना मोहतरम बनाया है
नाज़ है ख़लीली को हुस्न-ए-नक़्श-ए-सानी पर
गरचे आज़री ही ने ये सनम बनाया है
बे-कसी-ए-दिल अपनी दूर की है यूँ मैं ने
दूसरों के ग़म को भी अपना ग़म बनाया है
ज़िंदगी की मौसीक़ी क्या है हम समझते हैं
साज़ के तलव्वुन को ज़ेर-ओ-बम बनाया है
ज़ुल्फ़ की तरह इस को बस सँवारते रहिए
ज़िंदगी को फ़ितरत ने ख़म-ब-ख़म बनाया है
मैं ने ज़र्रे ज़र्रे को मुस्कुराहटें दी हैं
तुम ने हर सितारे को चश्म-ए-नम बनाया है
मुद्दई-ए-जिद्दत है तेरी फ़िक्र ऐ ज़ाहिद!
मय-कदे की ईंटों से क्यूँ इरम बनाया है
बुत हज़ारों तोड़े हैं कितने टुकड़े जोड़े हैं
ज़िंदगी ने जब जा कर इक सनम बनाया है
ग़ज़ल
साग़र-ए-सिफ़ालीं को जाम-ए-जम बनाया है
परवेज़ शाहिदी