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साए मजबूर हैं पेड़ों से उतरने के लिए | शाही शायरी
sae majbur hain peDon se utarne ke liye

ग़ज़ल

साए मजबूर हैं पेड़ों से उतरने के लिए

ख़्वाजा जावेद अख़्तर

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साए मजबूर हैं पेड़ों से उतरने के लिए
क्यूँ ख़िज़ाँ कहती है पत्तों से बिखरने के लिए

भर के मुट्ठी में तो ले जाएगी बादल को हवा
कोई शब आएगी तारों से सँवरने के लिए

उस को दो पल भी मिरा साथ गवारा न हुआ
साथ में जिस के मैं तय्यार था मरने के लिए

कहीं ऐसा तो नहीं है कि हवा रूठ गई
मुंतज़िर फूल हैं बाग़ों में बिखरने के लिए

किस बहाने से तुझे देखने आए 'जावेद'
कोई रस्ता हो तिरे दर से गुज़रने के लिए