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साए हैं गोश-बर-आवाज़ ज़रा आहिस्ता | शाही शायरी
sae hain gosh-bar-awaz zara aahista

ग़ज़ल

साए हैं गोश-बर-आवाज़ ज़रा आहिस्ता

कैलाश माहिर

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साए हैं गोश-बर-आवाज़ ज़रा आहिस्ता
मोनिसो आज की शब ज़िक्र-ए-वफ़ा आहिस्ता

चाँद के पाँव रुके थम गए उड़ते बादल
ज़िक्र किस आरिज़-ओ-गेसू का चला आहिस्ता

कितने दिन आए कफ़न ओढ़े हुए ख़्वाबों का
शब ने खोली तिरी यादों की क़बा आहिस्ता

क्या ख़बर अगले बरस अजनबी हो जाएँ हम
टूटते जाते हैं पैमान-ए-वफ़ा आहिस्ता

आज फिर ज़ख़्म-ए-तमन्ना से महक उठती है
कोई पैग़ाम लिए आई सबा आहिस्ता

आँख ने देखा न हो दिल तो मगर जाने है
कौन देता है दरीचों पे सदा आहिस्ता