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साए घटते जाते हैं | शाही शायरी
sae ghaTte jate hain

ग़ज़ल

साए घटते जाते हैं

मुनीर नियाज़ी

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साए घटते जाते हैं
जंगल कटते जाते हैं

कोई सख़्त वज़ीफ़ा है
जो हम रटते जाते हैं

सूरज के आसार हैं देखो
बादल छटते जाते हैं

आस पास के सारे मंज़र
पीछे हटते जाते हैं

देखो 'मुनीर' बहार में गुलशन
रंग से अटते जाते हैं