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साबिर-ओ-शाकिर रहे शादाँ रहे | शाही शायरी
sabir-o-shakir rahe shadan rahe

ग़ज़ल

साबिर-ओ-शाकिर रहे शादाँ रहे

शंकर लाल शंकर

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साबिर-ओ-शाकिर रहे शादाँ रहे
ख़ुश रहे जिस हाल में इंसाँ रहे

तुम को आईने में क्या आया नज़र
मिस्ल-ए-आईना जो तुम हैराँ रहे

उस मोहब्बत का बुरा हो इश्क़ में
चार दिन भी तो न हम शादाँ रहे

थे वो हुस्न-ओ-इश्क़ के राज़-ओ-नियाज़
क़ैद ज़िंदाँ में मह-ए-कनआँ' रहे

तुम नहीं हो तो तुम्हारी याद है
ख़ाना-ए-दिल किस लिए वीराँ रहे

क़त्ल कर के हम को वहीं मुन्फ़इल
और हम शर्मिंदा-ए-एहसाँ रहे

मय से तौबा उस घटा में मोहतसिब
क्यूँ फ़रिश्ता बन के हर इंसाँ रहे

खिल के कलियाँ दे रही हैं ये सबक़
आदमी काँटों में भी ख़ंदाँ रहे

बाग़ में दो दिन को आई है बहार
मिस्ल-ए-शबनम कोई क्यूँ गिर्यां रहे

मेरे सीने में जो थे उल्फ़त के दाग़
रोज़-ए-रौशन की तरह ताबाँ रहे

क्या हरम क्या दैर हैं झगड़ों के घर
उन से 'शंकर' दूर ही इंसाँ रहे