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साअत-ए-आसूदगी देखे हुए अर्सा हुआ | शाही शायरी
saat-e-asudgi dekhe hue arsa hua

ग़ज़ल

साअत-ए-आसूदगी देखे हुए अर्सा हुआ

शहबाज़ नदीम ज़ियाई

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साअत-ए-आसूदगी देखे हुए अर्सा हुआ
मुफ़लिसी को मेरे घर ठहरे हुए अर्सा हुआ

लम्हा-ए-राहत-रसा देखे हुए अर्सा हुआ
माँ तिरे शाने पे सर रक्खे हुए अर्सा हुआ

हिज्र की तारीकियों का सिलसिला है दूर तक
चाँदनी को चाँद से बिछड़े हुए अर्सा हुआ

ज़िंदगी बे-ख़्वाब लम्हों में सिमट कर रह गई
हिज्र में तेरे पलक झपके हुए अर्सा हुआ

ख़ौफ़ से सहमा हुआ है दिल परिन्दा आज भी
सर से सैलाब-ए-अलम गुज़रे हुए अर्सा हुआ

दिल को रहता है मुसलसल मुन्तशिर होने का ख़ौफ़
यानी अंदर से मुझे टूटे हुए अर्सा हुआ

कारोबार-ए-ज़ीस्त में कुछ इस क़दर उलझा कि बस
तेरे बारे में भी कुछ सोचे हुए अर्सा हुआ

ऐ हुजूम-ए-आरज़ू अब चाहता हूँ तख़लिया
ख़ाना-ए-दिल में तुझे रहते हुए अर्सा हुआ

मैं कहाँ हूँ कौन सी मंज़िल में हूँ कोई बताए
मुझ को अपनी खोज में निकले हुए अर्सा हुआ

दुश्मनी गुम हो गई है दोस्तों की भीड़ में
चेहरा हाए दुश्मनाँ देखे हुए अर्सा हुआ

जा तू अपनी राह ले अब ऐ दिल-ए-इशरत-तलब
पहलू-ए-'शहबाज़' में बैठे हुए अर्सा हुआ