रूठना चाहो तो अब हरगिज़ मनाने का नहीं
दिल को माइल कर लिया आँसू बहाने का नहीं
रास्ते धुँदला गए हैं रौशनी वालो सुनो
वा'दा जलने का किया था टिमटिमाने का नहीं
कश्तियाँ मंजधार में हैं नाख़ुदा नाराज़ हैं
आसमानों से कहो बिजली गिराने का नहीं
कब ढलेगी शाम-ए-ग़म कब ख़त्म होगा ज़ुल्म-ओ-जब्र
ज़िंदगी इंसाँ की है उनवाँ फ़साने का नहीं
लो चले जाते हैं ख़ाली हाथ दुनिया से 'उमीद'
याद कर लेना अज़ीज़ो भूल जाने का नहीं
ग़ज़ल
रूठना चाहो तो अब हरगिज़ मनाने का नहीं
उम्मीद ख़्वाजा