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रूह से कब ये जिस्म जुदा है | शाही शायरी
ruh se kab ye jism juda hai

ग़ज़ल

रूह से कब ये जिस्म जुदा है

शकील ग्वालिआरी

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रूह से कब ये जिस्म जुदा है
इन बातों में क्या रक्खा है

रफ़्ता रफ़्ता वो भी मुझ को
भूल रहा है भूल चुका है

रुत पैराहन बदल रही है
पत्ता पत्ता टूट रहा है

इन आँखों का हर अफ़्साना
मेरे ही ख़्वाबों की सदा है

हर चेहरा जाना-पहचाना
शहर ही अपना छोटा सा है