रूह मेरी अलग है जान अलग
ज़ात का ना-तवाँ मकान अलग
हर तरफ़ फैलती हुई किरनें
इक अँधेरे का ख़ानदान अलग
एक ज़र्रा हूँ और कुछ भी नहीं
हूँ बहुत कुछ है ये गुमान अलग
क़ैद हैं आँख में कई सपने
और है फ़िक्र की उड़ान अलग
इक तरफ़ शोर ख़ाना-ए-दिल में
अक़्ल रहती है बे-ज़बान अलग
कर रहा है नसीब की बातें
और तदबीर पर है मान अलग
डूबते तैरते हुए क़िस्से
और हैरत की दास्तान अलग

ग़ज़ल
रूह मेरी अलग है जान अलग
नक़्क़ाश आबिदी