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रूह को तो इक ज़रा सी रौशनी दरकार है | शाही शायरी
ruh ko to ek zara si raushni darkar hai

ग़ज़ल

रूह को तो इक ज़रा सी रौशनी दरकार है

फ़रहत एहसास

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रूह को तो इक ज़रा सी रौशनी दरकार है
जिस्म को लेकिन बहुत कुछ और भी दरकार है

आज फिर हम से किया दरयाफ़्त कोह-ए-तूर ने
इस से क्या कहते कि नूर-ए-गुमरही दरकार है

बा'द में इश्क़-ए-हक़ीक़ी भी मयस्सर हो तो क्या
ये मजाज़ी तो हमें फ़ौरन अभी दरकार है

इश्क़ उस ख़्वाहिश पे मेरी सोच में गुम हो गया
मुझ को पानी भी है दरकार आग भी दरकार है

फ़रहत-एहसास अपनी मिट्टी का धड़कता दिल सँभाल
बा'द मरने के जो तुझ को ज़िंदगी दरकार है