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रूह के मोजज़ों का ज़माना नहीं जिस्म ही कुछ करामात करते रहें | शाही शायरी
ruh ke mojazon ka zamana nahin jism hi kuchh karamat karte rahen

ग़ज़ल

रूह के मोजज़ों का ज़माना नहीं जिस्म ही कुछ करामात करते रहें

इरफ़ान सिद्दीक़ी

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रूह के मोजज़ों का ज़माना नहीं जिस्म ही कुछ करामात करते रहें
अपने होने का एलान करते रहें अपने होने का इसबात करते रहें

बर्फ़-ए-रुत आ गई फिर नई बस्तियों से नई हिजरतों ने पुकारा हमें
लेकिन इस बार परदेस जाते हुए रास्तों पर निशानात करते रहें

फिर कोई तिश्ना-लब तीर इस दश्त में हम तक आया है तय कर के कितना सफ़र
ऐ रग-ए-जाँ की जू-ए-रवाँ हम भी कुछ मेहमाँ की मुदारात करते रहें

एक ही पेड़ पर साँप और आदमी साथ रहते हैं सैलाब उतरने तलक
हम-सफ़र है अगर दुश्मन-ए-जाँ तो क्या राह सुनसान है बात करते रहें

जान लेने का वैसा सलीक़ा अभी लश्कर-ए-दुश्मनाँ में किसी को नहीं
आओ अब अपने ख़ेमों में वापस चलें दोस्तों से मुलाक़ात करते रहें