EN اردو
रूदाद-ए-मोहब्बत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए | शाही शायरी
rudad-e-mohabbat kya kahiye kuchh yaad rahi kuchh bhul gae

ग़ज़ल

रूदाद-ए-मोहब्बत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए

साग़र सिद्दीक़ी

;

रूदाद-ए-मोहब्बत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए
दो दिन की मसर्रत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए

जब जाम दिया था साक़ी ने जब दौर चला था महफ़िल में
इक होश की साअत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए

अब वक़्त के नाज़ुक होंटों पर मजरूह तरन्नुम रक़्साँ है
बेदाद-ए-मशिय्यत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए

एहसास के मय-ख़ाने में कहाँ अब फ़िक्र-ओ-नज़र की क़िंदीलें
आलाम की शिद्दत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए

कुछ हाल के अंधे साथी थे कुछ माज़ी के अय्यार सजन
अहबाब की चाहत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए

काँटों से भरा है दामन-ए-दिल शबनम से सुलगती हैं पलकें
फूलों की सख़ावत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए

अब अपनी हक़ीक़त भी 'साग़र' बे-रब्त कहानी लगती है
दुनिया की हक़ीक़त क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए