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रू-ए-ज़मीं नहीं कि सर-ए-आसमाँ नहीं | शाही शायरी
ru-e-zamin nahin ki sar-e-asman nahin

ग़ज़ल

रू-ए-ज़मीं नहीं कि सर-ए-आसमाँ नहीं

रोहित सोनी ‘ताबिश’

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रू-ए-ज़मीं नहीं कि सर-ए-आसमाँ नहीं
सच पूछिए तो उस के निशाँ हैं कहाँ नहीं

ख़ुद हम में आज हिम्मत ओ अज़्म-ए-जवाँ नहीं
वर्ना पहुँच से दूर कभी आसमाँ नहीं

बस एक ज़ात-ए-हक़ के सिवा काएनात में
हर शय फ़ना-पज़ीर है कुछ जावेदाँ नहीं

तुम ने जो कुछ कहा सो कहा अपना अपना ज़र्फ़
ऐसा नहीं कि मेरे दहन में ज़बाँ नहीं

दिल में हमारे हसरत-ओ-अरमाँ का है हुजूम
कैसे कहें कि हम पे कोई मेहरबाँ नहीं

कर अर्ज़-ए-मुद्दआ मगर ऐ दिल रहे ख़याल
इंकार कर दिया तो करेगा वो हाँ नहीं

'ताबिश' वो सामने ही है उड़ता हुआ ग़ुबार
बस दो क़दम से दूर है अब कारवाँ नहीं