रू-ए-ज़मीं नहीं कि सर-ए-आसमाँ नहीं
सच पूछिए तो उस के निशाँ हैं कहाँ नहीं
ख़ुद हम में आज हिम्मत ओ अज़्म-ए-जवाँ नहीं
वर्ना पहुँच से दूर कभी आसमाँ नहीं
बस एक ज़ात-ए-हक़ के सिवा काएनात में
हर शय फ़ना-पज़ीर है कुछ जावेदाँ नहीं
तुम ने जो कुछ कहा सो कहा अपना अपना ज़र्फ़
ऐसा नहीं कि मेरे दहन में ज़बाँ नहीं
दिल में हमारे हसरत-ओ-अरमाँ का है हुजूम
कैसे कहें कि हम पे कोई मेहरबाँ नहीं
कर अर्ज़-ए-मुद्दआ मगर ऐ दिल रहे ख़याल
इंकार कर दिया तो करेगा वो हाँ नहीं
'ताबिश' वो सामने ही है उड़ता हुआ ग़ुबार
बस दो क़दम से दूर है अब कारवाँ नहीं
ग़ज़ल
रू-ए-ज़मीं नहीं कि सर-ए-आसमाँ नहीं
रोहित सोनी ‘ताबिश’