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रुत्बा-ए-दर्द को जब अपना हुनर पहुँचेगा | शाही शायरी
rutba-e-dard ko jab apna hunar pahunchega

ग़ज़ल

रुत्बा-ए-दर्द को जब अपना हुनर पहुँचेगा

शहाब जाफ़री

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रुत्बा-ए-दर्द को जब अपना हुनर पहुँचेगा
हम-नशीं ज़ब्त-ए-सुख़न का भी असर पहुँचेगा

बे-सदारात से आजिज़ है मिरा दस्त-ए-जुनूँ
कोई दिन ता-ब-गरेबान-ए-सहर पहुँचेगा

खिंच के रह मुझ से मगर ज़ब्त की तल्क़ीन न कर
अब मिरी आह से तुझ को न ज़रर पहुँचेगा

बातों बातों में सब अहवाल-ए-जुदाई मत पूछ
कुछ कहूँगा तो तिरे दिल पे असर पहुँचेगा

रंज उठाते हैं मिरे ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ से हम-साए
ले के तुम तक कोई मरने की ख़बर पहुँचेगा

मेरे मरने से ग़म-ए-इश्क़ न मर जाएगा
मुझ को छोड़ेगा तो ग़म-ख़्वार के घर पहुँचेगा

अपने गेसू तो सँभालो कि खुले जाते हैं
वर्ना इल्ज़ाम मिरे शौक़ के सर पहुँचेगा

तुम को जीना है तो कुछ ऐब भी लाज़िम हैं 'शहाब'
ज़िंदगी को तो न फ़ैज़ान-ए-हुनर पहुँचेगा