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रुस्वा हुए ज़लील हुए दर-ब-दर हुए | शाही शायरी
ruswa hue zalil hue dar-ba-dar hue

ग़ज़ल

रुस्वा हुए ज़लील हुए दर-ब-दर हुए

खलील तनवीर

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रुस्वा हुए ज़लील हुए दर-ब-दर हुए
हक़ बात लब पे आई तो हम बे-हुनर हुए

कल तक जहाँ में जिन को कोई पूछता न था
इस शहर-ए-बे-चराग़ में वो मो'तबर हुए

बढ़ने लगी हैं और ज़मानों की दूरियाँ
यूँ फ़ासले तो आज बहुत मुख़्तसर हुए

दिल के मकाँ से ख़ौफ़ के साए न छट सके
रस्ते तो दूर दूर तलक बे-ख़तर हुए

अब के सफ़र में दर्द के पहलू अजीब हैं
जो लोग हम-ख़याल न थे हम-सफ़र हुए

बदला जो रंग वक़्त ने मंज़र बदल गए
आहन-मिसाल लोग भी ज़ेर-ओ-ज़बर हुए