रुकी रुकी सी शब-ए-मर्ग ख़त्म पर आई
वो पौ फटी वो नई ज़िंदगी नज़र आई
ये मोड़ वो है कि परछाइयाँ भी देंगी न साथ
मुसाफ़िरों से कहूँ उस की रहगुज़र आई
फ़ज़ा तबस्सुम-ए-सुब्ह-ए-बहार थी लेकिन
पहुँच के मंज़िल-ए-जानाँ पर आँख भर आई
किसी की बज़्म-ए-तरब में हयात बटती थी
उमीद-वारों में कल मौत भी नज़र आई
कहाँ हर एक से इंसानियत का बार उठा
कि ये बला भी तिरे आशिक़ों के सर आई
ज़रा विसाल के बा'द आइना तो देख ऐ दोस्त
तिरे जमाल की दोशीज़गी निखर आई
तिरा ही अक्स सरिश्क-ए-ग़म-ए-ज़माना में था
निगाह में तिरी तस्वीर सी उभर आई
शब-ए-'फ़िराक़' उठे दिल में और भी कुछ दर्द
कहूँ ये कैसे तिरी याद रात-भर आई
ग़ज़ल
रुकी रुकी सी शब-ए-मर्ग ख़त्म पर आई
फ़िराक़ गोरखपुरी