रुख़्सत-ए-यार का मज़मून ब-मुश्किल बाँधा
दिल न बंधता था किसी तौर बड़ा दिल बाँधा
हम ने भी बाँध लिया ज़ीस्त का अस्बाब वहीं
जब सुना यार-ए-सफ़र-दार ने महमिल बाँधा
हम ने उस चेहरे को बाँधा नहीं महताब-मिसाल
हम ने महताब को उस रुख़ के मुमासिल बाँधा
और क्या बाँधते सामाँ में ब-हंगाम-ए-सफ़र
सिर्फ़ दामन में ख़स-ए-कूचा-ए-क़ातिल बाँधा
हम जो हर गाम से पैमान-ए-वफ़ा बाँधते थे
आख़िरश हम ने भी अज़्म-ए-सर-ए-मंज़िल बाँधा
ग़ज़ल
रुख़्सत-ए-यार का मज़मून ब-मुश्किल बाँधा
इफ़्तिख़ार मुग़ल