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रुख़्सत-ए-यार का मज़मून ब-मुश्किल बाँधा | शाही शायरी
ruKHsat-e-yar ka mazmun ba-mushkil bandha

ग़ज़ल

रुख़्सत-ए-यार का मज़मून ब-मुश्किल बाँधा

इफ़्तिख़ार मुग़ल

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रुख़्सत-ए-यार का मज़मून ब-मुश्किल बाँधा
दिल न बंधता था किसी तौर बड़ा दिल बाँधा

हम ने भी बाँध लिया ज़ीस्त का अस्बाब वहीं
जब सुना यार-ए-सफ़र-दार ने महमिल बाँधा

हम ने उस चेहरे को बाँधा नहीं महताब-मिसाल
हम ने महताब को उस रुख़ के मुमासिल बाँधा

और क्या बाँधते सामाँ में ब-हंगाम-ए-सफ़र
सिर्फ़ दामन में ख़स-ए-कूचा-ए-क़ातिल बाँधा

हम जो हर गाम से पैमान-ए-वफ़ा बाँधते थे
आख़िरश हम ने भी अज़्म-ए-सर-ए-मंज़िल बाँधा