EN اردو
रुख़ तुम्हारा हो जिधर हम भी उधर हो जाएँगे | शाही शायरी
ruKH tumhaara ho jidhar hum bhi udhar ho jaenge

ग़ज़ल

रुख़ तुम्हारा हो जिधर हम भी उधर हो जाएँगे

बशीर महताब

;

रुख़ तुम्हारा हो जिधर हम भी उधर हो जाएँगे
तुम से बिछड़ेंगे अगर तो दर-ब-दर हो जाएँगे

ज़िंदगानी के सफ़र में लुत्फ़ होगा तब नसीब
हम-ख़याल-ओ-हम-नवा जब हम-सफ़र हो जाएँगे

आसमानों का सफ़र हम तय करेंगे एक रोज़
जब हमारे हौसलों में बाल-ओ-पर हो जाएँगे

सादगी यूँही अगर लादे रहे तो एक दिन
सब तुम्हारे अपने तुम से बे-ख़बर हो जाएँगे

देखना जिस दिन उन्हें मक़्सद समझ में आएगा
मंज़िलों की जुस्तुजू में रहगुज़र हो जाएँगे

पौदे हैं उर्दू अदब के आब-ओ-दाना डालिए
आने वाले कल में साए और समर हो जाएँगे

साक़ी साग़र की ज़रूरत ही कहाँ मेरे लिए
तेरी आँखों के ही प्याले पुर-असर हो जाएँगे

वो न जाएँगे कभी 'महताब' ज़ुल्मत की तरफ़
वक़्त पर अंजाम से वाक़िफ़ अगर हो जाएँगे