रुख़ किसी का नज़र नहीं आता
कोई आता नज़र नहीं आता
क्या कहूँ क्या मलाल रहता है
क्या कहूँ क्या नज़र नहीं आता
सुनने वाले तो बात के लाखों
कहने वाला नज़र नहीं आता
दूर से वो झलक दिखाते हैं
चाँद पूरा नज़र नहीं आता
खोई खोई नज़र ये क्यूँ 'मुज़्तर'
कुछ कहो क्या नज़र नहीं आता
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ग़ज़ल
रुख़ किसी का नज़र नहीं आता
मुज़्तर ख़ैराबादी