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रुख़-ए-रौशन को बे-नक़ाब न कर | शाही शायरी
ruKH-e-raushan ko be-naqab na kar

ग़ज़ल

रुख़-ए-रौशन को बे-नक़ाब न कर

शौक़ बिजनौरी

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रुख़-ए-रौशन को बे-नक़ाब न कर
दिल की दुनिया में इंक़लाब न कर

आइना रख न सामने उस के
हुस्न ख़ुद-बीं को ला-जवाब न कर

चार-सू जल्वा-गर तू ही तू है
आइना-ख़ाना में हिजाब न कर

मेरे नग़्मों में कैफ़-ए-ग़म भर दे
मुझ को मिन्नत-कश-ए-रबाब न कर

मेरी अख़्तर-शुमारियाँ मत पूछ
अपने वा'दों का कुछ हिसाब न कर

बख़्त-दाज़ों को रो रहा हूँ मैं
ग़म-ज़दा पर फ़लक अज़ाब न कर

राह-ए-पुर-ख़ार है अभी दर-पेश
आबलों का अभी हिसाब न कर

'शौक़' है तेरा मुंतज़िर कब से
अब तो सूरत दिखा हिजाब न कर