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रुख़-ए-रौशन दिखाइए साहब | शाही शायरी
ruKH-e-raushan dikhaiye sahab

ग़ज़ल

रुख़-ए-रौशन दिखाइए साहब

सख़ी लख़नवी

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रुख़-ए-रौशन दिखाइए साहब
शम्अ को कुछ जलाइए साहब

रूह हो कर समाइए साहब
मेरे क़ालिब में आइए साहब

शैख़-जी हो तुम्हें सुरूद हराम
आप अपनी न गाइए साहब

वस्ल की शब क़रीब आई है
अब न मेहंदी लगाइए साहब

ख़ून-ए-उश्शाक़ है मआनी में
शौक़ से पान खाइए साहब

मैं तजल्ली-ए-तूर देखूँगा
आज कोठे पे आइए साहब

आप दिल में बिगाड़ रखते हैं
बस न बातें बनाइए साहब

चश्म-ए-तर रोने पर है आमादा
और सूखी सुनाइए साहब

बोसा-ए-रुख़ तो चाहते हो 'सख़ी'
कहीं मुँह की न खाइए साहब