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रुख़ बदलते हिचकिचाते थे कि डर ऐसा भी था | शाही शायरी
ruKH badalte hichkichate the ki Dar aisa bhi tha

ग़ज़ल

रुख़ बदलते हिचकिचाते थे कि डर ऐसा भी था

नश्तर ख़ानक़ाही

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रुख़ बदलते हिचकिचाते थे कि डर ऐसा भी था
हम हवा के साथ चलते थे मगर ऐसा भी था

लौट आती थीं कई साबिक़ पतों की चिट्ठियाँ
घर बदल देते थे बाशिंदे मगर ऐसा भी था

वो किसी का भी न था लेकिन था सब का मो'तबर
कोई क्या जाने कि उस में इक हुनर ऐसा भी था

पाँव आइंदा की जानिब सर गुज़िश्ता की तरफ़
यूँ भी चलते थे मुसाफ़िर इक सफ़र ऐसा भी था

तौलता था इक को इक अश्या-ए-मसरफ़ की तरह
दोस्ती थी और अंदाज़-ए-नज़र ऐसा भी था

ख़ुद से ग़ाफ़िल हो के जो पल भर न ख़ुद को सोचता
इस भरी बस्ती में कोई बे-ख़बर ऐसा भी था

हर नई रुत में बदल जाती थी तख़्ती नाम की
जिस को हम अपना समझते कोई घर ऐसा भी था