रुके रुके से क़दम रुक के बार बार चले
क़रार दे के तिरे दर से बे-क़रार चले
उठाए फिरते थे एहसान जिस्म का जाँ पर
चले जहाँ से तो ये पैरहन उतार चले
न जाने कौन सी मिट्टी वतन की मिट्टी थी
नज़र में धूल जिगर में लिए ग़ुबार चले
सहर न आई कई बार नींद से जागे
थी रात रात की ये ज़िंदगी गुज़ार चले
मिली है शम्अ से ये रस्म-ए-आशिक़ी हम को
गुनाह हाथ पे ले कर गुनाहगार चले
ग़ज़ल
रुके रुके से क़दम रुक के बार बार चले
गुलज़ार