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रुका तो राज़ खुला कब से अपने घर में था | शाही शायरी
ruka to raaz khula kab se apne ghar mein tha

ग़ज़ल

रुका तो राज़ खुला कब से अपने घर में था

शुजाअत अली राही

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रुका तो राज़ खुला कब से अपने घर में था
कि मेरा घर तो मिरी हालत-ए-सफ़र में था

बहुत अजीब सा दुख था जो तू ने मुझ को दिया
कि इक तबस्सुम-ए-मख़्फ़ी भी चश्म-ए-तर में था

इराक़ ओ शाम के पर्दे में बे-नक़ाब हुआ
तमाम दहर का दुख एक नंगे सर में था

क़दम उरूस-ए-वफ़ा के कहाँ कहाँ पहुँचे
हिना का रंग सितारों की रहगुज़र में था

बस एक जुरअत-ए-रिंदाना अर्सा-ए-शब में
पलक झपकते ही मैं अर्सा-ए-सहर में था

हज़ार रंग थे उस के हज़ार पहलू थे
जुदा जुदा वो झलकता नज़र नज़र में था

ब-फ़ैज़-ए-बार-ए-मलामत झुकी कमर मेरी
हरा शजर था मगर शहर-ए-बे-समर में था