रोज़-ओ-शब और नए अर्ज़-ओ-समा माँगे है
आज का दौर नई आब-ओ-हवा माँगे है
अपनी बेचारगी की यूँ तो है एहसास बहुत
फिर भी दिल तुझ से वही अहद-ए-वफ़ा माँगे है
धूप में झुलसी हुई शाख़ पे अफ़्सुर्दा कली
फूल बनने के लिए दस्त-ए-सबा माँगे है
हर कोई यूँ तो है बर-गश्ता-ए-हालात मगर
हर कोई जीने की हर लहज़ा दुआ माँगे है
आह वो वालिद-ए-बे-ज़र की जवाँ बेटी के
सूने हाथों के लिए रंग-ए-हिना माँगे है
ये नए तौर ये अंदाज़ मुझे रास नहीं
मेरी तहज़ीब वही शर्म-ओ-हया माँगे है
सैंकड़ों ने'मतों से उस ने नवाज़ा है तुझे
और अब 'चाँद' तू अल्लाह से क्या माँगे है
ग़ज़ल
रोज़-ओ-शब और नए अर्ज़-ओ-समा माँगे है
महेंद्र प्रताप चाँद

