रोज़ ख़्वाबों में नए रंग भरा करता था
कौन था जो मिरी आँखों में रहा करता था
उँगलियाँ काट के वो अपने लहू से अक्सर
फूल पत्तों पे मिरा नाम लिखा करता था
कैसा क़ातिल था जो हाथों में लिए था ख़ंजर
चुपके चुपके मिरे जीने की दुआ करता था
हाए क़िस्मत कि यही छोड़ के जाने वाला
उम्र भर साथ निबाहेंगे कहा करता था
फूल सा जिस्म सुलगते हुए संदल की तरह
दिल के मंदिर में सर-ए-शाम जला करता था
वो जो इक लम्हा किसी याद में कटता था 'नज़ीर'
दिल के जलते हुए शो'लों को हवा करता था
ग़ज़ल
रोज़ ख़्वाबों में नए रंग भरा करता था
नज़ीर बाक़री